Monday, 10 October 2016

रस (RAS)

रस  
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।
  • पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
  • रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।

रस के अवयव

रस के चार अवयव या अंग हैं:-

स्थायी भाव

स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िरी तक होता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। 

विभाव

स्थायी भावों के उद्बोधक कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-
  • आलंबन विभाव
  • उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव
जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-
  1. आश्रयालंबन
  2. विषयालंबन
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

अनुभाव

मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं। अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-
  • स्तंभ
  • स्वेद
  • रोमांच
  • स्वर-भंग
  • कम्प
  • विवर्णता (रंगहीनता)
  • अश्रु
  • प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता)।

संचारी या व्यभिचारी भाव

मन में संचरण करने वाले (आने-जाने वाले) भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं। संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
संचारी या व्यभिचारी भाव
हर्षविशादत्रास[1]लज्जाग्लानि
चिंताशंकाअसूया[2]अमर्श[3]मोह
गर्वउत्सुकताउग्रताचपलतादीनता
जड़ताआवेगनिर्वेद[4]धृति[5]मति
बिबोध[6]श्रमआलस्यनिद्रास्वप्न
स्मृतिमदउन्मादअवहित्था[7]अपस्मार (मूर्च्छा)
व्याधि (रोग)मरण

रस के प्रकार

रसस्थायी भावउदाहरणचित्र
शृंगार रसरति/प्रेमशृंगार रस (संभोग शृंगार)
बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी)
वियोग शृंगार (विप्रलंभ शृंगार)
निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ (सूरदास)

हास्य रसहास
 तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट घंटा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी)
करुण रसशोक
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा॥(तुलसीदास)
वीर रसउत्साह
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)

रौद्र रसक्रोध
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ (मैथिलीशरण गुप्त)
भयानक रसभय
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥ (जयशंकर प्रसाद)
वीभत्स रसजुगुप्सा/घृणा
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥(भारतेन्दु)
अद्भुत रसविस्मय/आश्चर्य
अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति)
शांत रसशम\निर्वेद (वैराग्य\वीतराग)
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (कबीर)
वात्सल्य रसवात्सल्य
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत।
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥(सूरदास)

भक्ति रसभगवद् विषयक रति\अनुराग
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥

विशेष
  • शृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है।
  • नाटक में 8 ही रस माने जाते हैं क्योंकि वहाँ शांत को रस नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 मानी है।
  • शृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं। पेपर के लिए 9 रस माने जाते हैं।

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